वंशागति एवं विविधता के सिद्धांतवंशागति एवं विविधता के सिद्धांत

वंशागति (Heredity):- लक्षणों का जनकों (माता-पिता) से संतति में स्थानांतरण, वंशा गति कहलाता है।

विविधता (Variation):- जनक एवं संतति मे पाये जाने वाली असमानताओ को, विविधताए कहते हैं।

आनुवंशिकी (Genetics)

जीव विज्ञान की वह शाखा जिसके अन्तर्गत वंशागति और विविधता का अध्ययन किया जाता है, उसे आनुवंशिकी कहते हैं।

आनुवंशिकी शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग (W. Batason) ने किया था।

आनुवंशिकी (Genetics) के जनक ग्रेगर जान मेण्डल है

आनुवंशिकी शब्दावली

(1.) जीन (Gene):-

  • जीन आनुवंशिकी लक्षणों को एक पीढ़ी से दूसरे पीढी मे पहुँचाता है।
  • मेण्डल ने इसे कारक कहा था ।
  • जीन शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग (जोहन्सनने किया था।

(2.) स्प्लील (Allele):-

  • एक ही जीन के विभिन्न रूप को एलील या युग्मविकल्पीय कहते हैं।
  • उदाहरण= लम्बा और बौना समान जीन के विभिन्न रूप है।

(3. )फीनोटाइप (Phenotype):- किसी जीव के बाह्य लक्षणों को फीनोटाइप कहते हैं, जो जीव में बाहर से ही दिखाई देते है।

उदाहरण:- आँख का रंग, पौधे का लम्बापन एवं बौनापन |

(4.) जीनोटाइप (Genotype):- जीव की जीनी संरचना को जीनोटाइप कहते हैं अर्थात जीनोटाइप जीव के आनुवंशिक संघटन को प्रदर्शित करता है।

(5.) जीन बिन्दु (Gene Locus):- गुणसूत्र के जिस स्थान पर जीन पाया जाता है, उसे जीन बिन्दु कहते है।

(6.) समयुग्मजी (Homozygous):- जब एक लक्षण के दो जीन समान प्रकार के होते हैं, तो इसे समयुग्मजी कहते हैं।

उदाहरण:- लम्बापन (TT), बौनापन (tt)

(7.) विषम युग्मजी (Hetero zygous):- यदि एक ही लक्षण के दोनो जीन्स असमान या अलग- अलग होते है तो इसे विषमयुग्मजी कहते है |

उदाहरण:- संकर लम्बा पौधा (Tt)

(8.) लक्षण (Characters):- किसी जीव के आकारिकी सम्बन्धी विशेषताओ को लक्षण कहते हैं।

उदाहरण:- पौधे की लम्बाई

(9.) विशेषक (Trait):- किसी लक्षण के दो भिन्न उपलक्षणों को विशेषक कहते हैं।

जैसे= पौधे की लम्बाई→ लक्षण

(10.) युग्मक (Gamete): यह एक परिपक्व जनन कोशिका होती है, जो संलयन करके नये जीव का निर्माण करती है।

युग्मक के प्रकार:- नर युग्मक, मादा युग्मक

(11.) संकरण (Hybridisation):- जब दो अलग- अलग लक्षणों वाले जीवों के बीच निषेचन कराया जाता है, तो इस क्रिया को संकरण कहते हैं।

संकरण से प्राप्त होने वाली संतानों को संकर कहते है।

(12.) एक संकर संकरण:- जब एक जोडी या दो अलग- अलग उपलक्षणो, वाले जीवो के बीच संकरण कराया जाता है तो इसे एक संकर संकरण कहते है।

उदाहरण:- लम्बापन और बौनापन

(13.) द्विसंकर संकरण:- जब दो जोड़ी अलग – अलग उपलक्षणों वाले जीवो के बीच संकरण कराया जाता है तो उसे द्विसंकर संकरण कहते हैं।

(14.) परीक्षण संकरण (Test cross):- जब प्रथम पीढ़ी (Fi) से प्राप्त संकर संतानों का संकरण उसके अप्रभावी जनक के साथ कराया जाता है तो उसे परीक्षण संकरण कहते है |

उदाहरण:- Tt (संकर संतान ) x tt (अप्रभावी जनक) ।

(15.) संकर पूर्वज संकरण (Back Cross):- जब प्रथम पीढ़ी से प्राप्त संकर संकर संतानों का संकरण उसके जनक के साथ कराया जाता है, संकर पूर्वज संकरण कहलाता है।

(16.) प्रभावी लक्षण:- जब एक जोडी उपलक्षणों वाले जीवो के बीच निषेचन कराया जाता है, तो प्रथम पीढ़ी मे दिखाई देने वाले लक्षणों को प्रभावी लक्षण कहते है।

उदाहरण:- लम्बापन, पीली बीज

(17.) अप्रभावी लक्षण:- जब एक जोड़ी अलग- अलग उपलक्षणो वाले जीवो के बीच निषेचन कराया जाता है तो प्रथम पीढ़ी गे दिखाई न देने वाले लक्षणों को अप्रभावी लक्षण कहते है।

उदाहरण:- बौनापन, हरा बीज

मेण्डलवाद (Mendelism)

जन्म → मेण्डल का जन्म 22 जुलाई 1822 ई०

जन्म स्थान → आस्ट्रिया देश के बुन शहर मे |

परिवार→ माली परिवार से सम्बन्धित |

  • बड़े होने पर ये ब्रुन शहर के चर्च गे पादरी बन गये ।
  • इन्होंने मटर के पौधे पर लगभग 7 वर्षों (1856-1863) तक प्रयोग किए।
  • मटर के पौधे का वैज्ञानिक नाम- Pisum sativum
  • 1865 गे इन्होंने अपने प्रयोगों से निष्कर्षों और उपलब्धियों को ब्रुन शहर के Natural History Society में प्रस्तावित किया |
  • 1884 गे गेण्डल की मृत्यु हो गयी।
  • इनकी मृत्यु के 16 वर्षों बाद (1900) मे तीन अलग- अलग देशो के वैज्ञानिकों ने मेण्डल के नियमों को पुनः खोजा था ।
  • वैज्ञानिकों के नाम – ह्यूगो डी ब्रीज, कार्ल कॉरेन्स, एरिक वैन शेरमैक ।
  • इन तीनो वैज्ञानिको ने मेण्डल के नियमों को संक्षेप मे मेण्डलवाद कहा ।

मेण्डल द्वारा मटर के पौधे का चुनाव करने का कारण

  • मेण्डल ने अपने प्रयोगों के लिए मटर का चयन अनेक कारणों से किया-
  • मटर एक वर्षीय पौधा है जिसे आसानी से उगाया जा सकता है और हर साल प्रयोगों के परिणाम प्राप्त किये जा सकते हैं।
  • पौधे मे ज्यादा फल व फूल होते है जिससे बीजो को आसानी से प्राप्त कर सकते है और इसे छोटे जगह पर उगा सकते हैं।
  • मटर के फूल द्विलिंगी होते है. इस कारण ये स्वपरागणी होते हैं।
  • इसमे अनेक विपरीत लक्षण पाये जाते है।
  • मटर के फूलो मे कृत्रिम विधि से परागण आसानी से करा सकते है।

मटर के पौधे के सात जोडी विपरीत लक्षण

No.लक्षणप्रभावीअप्रभावी
1.तने की ऊंचाईलम्बेबौना
2.पुस्प का रंगबैंगनीसफेद
3.बीज आकृतिगोलझुरीदार
4.फ्ली की आकृतिफूलीपिचके
5.फली का रंगहरेपीले
6.पुष्प की स्थितिकक्षीयअक्षीय
7.पुष्प की स्थितिपीलेहरे

मेण्डल की सफलता के कारण

  • मेण्डल ने मटर के पौधों की कई पीढ़ियों तक अध्ययन किया।
  • इन्होंने एक बार में एक ही लक्षण के प्रयोग पर ध्यान दिया।
  • मेण्डल ने अपने प्रयोग से प्राप्त परिणामों का एक लेखा-जोख रखा।

मेण्डल के नियम या आनुवंशिकता के नियम

मेण्डल के आनुवंशिकता के तीन नियम होते है।

(1) प्रभाविता का नियम:- जब एक जोड़ी अलग-अलग उपलक्षणों वाले जीवो के बीच संकरण कराया जाता है, तो प्रथम पीढ़ी में केवल प्रभावी लक्षण दिखाई देते है, इसे ही प्रभाविता का नियम कहते हैं।

(2) पृथक्करण का नियम:- जब एक जोड़ी अलग-अलग उपलक्षणों वाले जीवों के बीच संकरण करते है तो प्रथम पीढ़ी (F) मे केवल प्रभावी लक्षण दिखाई देते है, लेकिन दूसरी पीढ़ी में प्रभावी और अप्रभावी दोनो लक्षण एक निश्चित अनुपात मे अलग हो जाते हैं। इसे ही पृथक्करण का नियम कहते है।

(3) स्वतंत्र अपव्यूहन का नियम:- जब दो जोडी अलग-अलग लक्षणो वाले जीवो के संकरण कराया जाता है तो दोनो लक्षणों के वैकल्पिक स्वरूपों का पृथक्करण स्वतंत्र रूप से होता है। अर्थात एक लक्षण की वंशागति दूसरे लक्षण की वंशागति को प्रभावित नहीं करती हैं।

यह नियम द्विसंकर संकरण पर आधारित है।

मेण्डलवाद के विचलन (Deviations of Mendelism)

सभी जीवो की वंशागति मेण्डलवाद के अनुसार नहीं होती है परन्तु कई लक्षणों की वंशागति अपवाद को प्रदर्शित करती है। इस प्रकार की वंशागति को Non-Mendeliom वंशागति कहते हैं, इसके निम्न उदाहरण है।

(a) अपूर्ण प्रभाविता (Incomplete Dominance):- अपूर्ण प्रभाविता की खोज कार्ल कारेन्स नामक वैज्ञानिक ने गुलाबास के पौधो मे की थी।

गुलाबास पौधे का वैज्ञानिक नाम मिराबिलिस जलापा है ।

जब दो अलग-अलग उपलक्षणो वाले पौधों के बीच संकरण कराया जाता है, तो प्रथम पीढ़ी में न तो प्रभावी लक्षण दिखाई देते है और न ही अप्रभावी लक्षण दिखाई देते है बल्कि दोनो लक्षणो के मध्य के लक्षण दिखाई देते है।

(b) सहप्रभाविता:– जब दोनो उपलक्षणों के जीन्स प्रथम पीढ़ी मे साथ- साथ प्रदर्शित होते है तो इसे सह प्रभाविता कहते है।

आनुवंशिकता का गुणसूत्रीय सिद्धांत (Chromosomal Theory of heredity)

  • कोशिकाओ के केन्द्रक मे एक धागेनुमा संरचना पाई जाती है, जिसे वाल्डेयर नामक वैज्ञानिक ने 1888 ई० मे गुणसूत्र नाम दिया ।
  • सटन और बोवेरी ने 1902 ई० मे एक सिद्धांत प्रतिपादित किया, जिसे आनुवंशिकता का गुणसूत्रीय सिद्धांत कहते हैं। इसके अनुसार आनुवंशिक गुणो की इकाईयाँ जीन के द्वारा ही अद्धसूत्री विभाजन के समय गुणों का एक पीढ़ी से दूसरे पीढ़ी मे स्थानान्तरण होता है।
  • 1909 ई० मे जोहान्सन ने कारक की जगह जीन शब्द का प्रयोग किया।
  • सन् 1933 मे टी. एच. मॉर्गन ने सटन और बोवेरी का समर्थन किया। उन्होंने यह बताया कि विशिष्ट जीन विशिष्ट गुणसूत्र से सम्बन्धित होता है।
  • मेण्डल के सिद्धांतों की पुनर्खोज से आनुवंशिकता के गुणसूत्री सिद्धांत पर बल दिया। इस सिद्धांत की मुख्य बाते निम्न है।
    • (i) गुणसूत्र एवं कारक द्विगुणित कोशिकाओं मे जोड़े मे पाये जाते हैं।
    • (ii)गुणसूत्र एवं जीन युग्मको के निर्माण के समय में अलग अलग हो जाते है।

सहलग्नता (Linkage)

जब दो या दो से अधिक जीन एक ही गुणसूत्र (Chromosome) पर तथा एक दूसरे के पास पास स्थित होते हो, लेकिन स्वतंत्र अपव्यूहन नही दर्शाते, बल्कि साथ – साथ वंशानुगत होते हैं, इसे सहलग्नता कहते है।

लिंग निर्धारण (Sex Determination)

लिंग गुणसूत्रों के कारण जीवो मे लिंग निर्धारित होना, लिंग निर्धारण कहलाता है।

उत्परिवर्तन (Mutation)

शरीर के अन्दर अचानक उत्पन्न होने वाले लक्षणों को उत्परिवर्तन कहते है। यह क्रिया DNA तथा जीन में होने वाली रासायनिक परिवर्तन के द्वारा होती है।

उत्परिवर्तन दो प्रकार के होते है

(1) गुणसूत्रीय उत्परिवर्तन (chromosomal Mutation)

गुणसूत्रो मे उपस्थित जीनो के मध्य होने वाले उत्परिवर्तन को गुणसूत्रीय उत्परिवर्तन कहते है।

ये भी दो प्रकार का होता है।

(a) संख्यात्मक गुणसूत्रीय उत्परिवर्तन- गुणसूत्रों की संख्या मे जो उत्परिवर्तन होता है, उसे संख्यात्मक उत्परिवर्तन कहते है।

जब गुणसूत्र के एक सेट मे कमी आ जाती है तो इसे अगुणिता कहते है।

या जब एक सेट की वृद्धि होती है तो इसे बहुगुणिता कहते हैं।

(b) संरचनात्मक गुणसूत्रीय उत्परिवर्तन – गुणसूत्र की संरचना में होने वाले परिवर्तन को संरचनात्मक गुणसूतीय उत्परिवर्तन कहते हैं। कभी- कभी इस परिवर्तन के कारण जीव की मृत्यु भी हो जाती है।

(2) जीन उत्परिवर्तन (Gene Mutation):-

DNA तथा RNA की रसायनिक संरचना मे होने वाले परिवर्तन को जीन उत्परिवर्तन कहते हैं।

इस उत्परिवर्तन से ‘सिकल सेल एनीमिया’ रोग हो जाता है|

ये तीन प्रकार का होता है।

(a) प्रतिस्थापन (substitution)– इसमें DNA श्रृंखला से एक या अधिक क्षारक युग्म दूसरे क्षारक युग्म से बदल जाता है, उसे प्रतिस्थापन कहते है।

(b) विलोपन:- इसमे न्यूक्लियोटाइड शृंखला में से एक या एक से अधिक क्षार बाहर निकल जाते हैं।

(c) निवेशन:- इसमे न्यूक्लियोटाइड श्रृंखला में एक या एक से अधिक क्षार जुड़ जाते हैं।

बिन्दु उत्परिवर्तन (Point Mutation)

जीन उत्परिवर्तन जिसमे एकल नाइट्रोजन क्षारक का प्रतिस्थापन विलोपन या निवेशन होता है, उसे बिन्दु उत्परिवर्तन कहते हैं।

सकल उत्परिवर्तन (Grass Mutation)

ऐसे जीन उत्परिवर्तन जिसमे एक से अधिक क्षारक भाग लेते है, उसे सकल उत्परिवर्तन कहते हैं।

फ्रेम शिफ्ट उत्परिवर्तन (Frame shift Mutation)

इसमें एक न्यूक्लियोटाइड को हटाकर नये न्यूक्लियोटाइड को जोड़ देते हैं लेकिन हटाए गए न्यूक्लियोटाइड पुराने वाले अमिनो Acid को ही coded करते है जिसके लक्षण में उत्परिवर्तन नहीं होता है।

उत्परिवर्तन की विशेषताएँ

  • जीवो मे अचानक उत्परिवर्तन उत्पन्न होते है।
  • इसकी कोई निश्चित दिशा नहीं होती है।
  • उत्परिवर्तन द्वारा नये गुण उत्पन्न होते है, जिससे नई जाति का विकास होता है।
  • जो उत्परिवर्तन जनन कोशिका मे उत्पन्न होते है वही वंशागत होते हैं।

लिंग सहलग्न लक्षण व लिंग सहलग्न वंशागति

लिंग गुणसूत्र पर प्राय: लिंग लक्षण वाले जीन होते हैं। कभी-कभी लिंग गुणसूत्र पर लिंग लक्षण वाले जीन के अतिरिक्त कायिक लक्षण वाले जीन भी उपस्थित होते हैं तो इन्हें हम लिंग सहलग्न लक्षण वाले जीन कहते है तथा इनके द्वारा व्यक्त लक्षण क़ो लिंग सहलग्न लक्षण कहते है तथा इन लक्षणों की संतानों में जाने को हम लिंग सहलग्न वंशागति कहते है। ।

ये लिंग सहलग्न लक्षण संतानों में रोग के रूप में दर्शित होता है और यह प्राय: X लिंग गुणसूत्र पर स्थित होता है।

मानव मे लिंग सहलग्न वंशागति प्रायः वर्णाधता तथा हीमोफीलिया के रूप में पाया जाता है |

वर्णांधता (colour Bliendness):- लाल – हरे रंग में व्यक्ति द्वारा अंतर न कर पाना, वर्णांधता कहलाता है। इसे प्रोटान दोष या लाल – हरा अंधापन भी कहते हैं।

हीमोफीलिया:- यह रोग सर्वप्रथम यूरोप के महारानी ‘विक्टोरिया को हुआ जो एक रक्त सम्बन्धी रोग है इसमें रोगी व्यक्ति को चोट लगने पर खून का बहना बन्द नही होता है। क्योंकि ऐसे व्यक्ति मे रक्त का थक्का बनाने वाला प्रोटीन (VIII) (IX) प्राय: जीन उत्परिवर्तन के कारण अनुपस्थित होता है। यह रोग प्रायः पुरुषों में ही पाया जाता है। इसे रक्त स्त्रावण रोग भी कहते है।

मनुष्य मे मेण्डलीय विकार

वे विकार (रोग) जो एकल जीन के रुपान्तरण या उत्परिवर्तन से उत्पन्न होते हैं, उन्हें हम मेण्डलीय विकार कहते हैं। उदाहरण → थैलीसीनिया, हीमोफीलिया, वर्णांधता इत्यादि ।

थैलीसीनिया- यह रक्त सम्बंधी दोष युक्त रोग है जिसमे व्यक्ति में हीमोग्लोबिन की मात्रा कम रहती है और शरीर दुर्बल हो जाता है और हमेशा किसी न किसी रोग से ग्रसित रहता है। सामान्य व्यक्ति मे RBC का जीवनकाल 120 दिन का होता है, पर इस रोग से ग्रसित व्यक्ति के RBC का जीवन काल केवल 20 दिन होता है।

मनुष्य मे गुणसूत्रीय विकार

अर्द्धसूत्री विभाजन के समय प्रायः गुणसूत्रो के परस्पर अलग न हो पाने के कारण गुणसूत्रों की संख्या कुछ कम या अधिक हो जाती है जिससे होने वाले सन्तान मे यह एक रोग के रूप में उत्पन्न होता है जिसे हम गुणसूत्रीय विकार या सिड्रोम कहते हैं। यह निम्न प्रकार का होता है।

(1) डाउन सिन्ड्रोम:- जब 21वीं जोड़ी गुणसूत्र दो के बजाय तीन हो जाता है तो इसे हम डाउन सिन्ड्रोम या एकाधिसूत्रता कहते है। इसे मंगोली जडता भी कहते है।

  • इसमे 47 गुणसूत्र हो जाते हैं।
  • इनकी 16-17 वर्ष मे मृत्यु हो जाती है।
  • इनकी गर्दन मोटी, त्वचा खुरदरी, जीभ मोटी आदि डाउन सिड्रोम के लक्षण है।

(2) टर्नर सिंड्रोम:- जब व्यक्ति में लिंग गुणसूत्र दो की जगह (XX या XY) एक (X) हो जाता है तो उसे हम टर्नस सिन्डोम कहते हैं। ये एकल सूत्री अर्थात मोनोसोमिक होती है।

  • इसमे गुणसूत्र 45 होते हैं।
  • इनका स्तन चपटा होता है।
  • अण्डाशय अनुपस्थित होता है।
  • मासिक धर्म नही होता है।

(3) क्लाइने फिल्टर सिन्डोम:- जब किसी व्यक्ति में लिंग गुणसूत्र दो के बजाय तीन (XXY) हो जाता है तो इसे हम क्लाइने फिल्टर सिन्ड्रोम कहते है।

  • इनमे शुक्राणु नही बनते है।
  • ये नर नपुंसक होते हैं।

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वंशागति एवं विविधता के सिद्धांत

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